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महोदय पर्यावरण से तात्पर्य किसी एक व्यक्ति के परिवेश से नहीं वरन व्यक्ति के समाज के राष्ट्र के और इस सारी पृथ्वी के ही परिवेश से है जिसका प्रभाव व्यक्ति समाज राष्ट्र और सारे विश्व पर पडता है पर्यावरण से तात्पर्य पेड पौधे नदी पहाड या किसी तंत्र विशेष से नहीं वरन उस समग्र वास्तविकता से है जिस पर मानव मात्र का अस्तित्व और उसका संपूर्ण आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास निर्भर है अस्तित्व केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं मानसिक भी स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन ही अच्छी स्वास्थ्य की परिभाषा है शारीरिक स्वास्थ्य हमारे आहार पर निर्भर है जिसका स्रोत इस पृथ्वी का जल थल वायुमण्डल है मानसिक स्वास्थ्य भी प्रकारांतर से इन्हीं पर निर्भर है क्योंकि जैसा खाए अन्न वैसा बने मन स्वस्थ जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव हमारे चिंतन का है हमारी परंपराओं का और उन सब परिस्थितियों का पड़ता है जो हमारे ऊपर आरोपित हैं या की गई हैं या की जा रही हैं इसलिए पर्यावरण या परिवेश में जल थल वायु ही नहीं बल्कि वे सारे घटक महत्वपूर्ण हैं जिनका कुछ भी प्रभाव हमारे जीवन पर हमारी कार्यशीलता पर पड़ता है जैसे हमारे विचार हमारे आचरण और हमारी परंपराएं एवं संस्कृति आदि सदा से मानव की आकांक्षा उन्नति और विकास की रही है जगत का अर्थ है गतिमान और गति दोनों और संभव है उन्नति की और भी और अवनति की ओर भी पहली को हम प्रगति कहते हैं दूसरी को गति गति अधोगति या दुर्गति कह सकते हैं वास्तव में मनुष्य ऐसा जटिल प्राणी है जिसमें अनेक विरोधाभासी और असंगत प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियाँ और प्रतिक्रियाएँ होती हैं वह कानून एवं व्यवस्था की मांग करता है किंतु चलचित्र दूरदर्शन आदि में स्वतः भड़की हिंसा या खेलों में युक्तिपूर्वक की गयी हिंसा अथवा अनीति से मंत्रमुग्ध भी हो जाता है मनुष्य अपनी ही जाति या वर्ग के व्यक्तियों के प्रति प्रायः बहुत अधिक प्रतिद्वन्द्वी होता है किंतु कोई बाहरी खतरा उपस्थित होने पर उनके प्रति हृदय से ज्यादा सहयोगी बन जाता है वह सड़कों पर या युद्धों में सामूहिक विनाश के प्रति उदासीन रहता है किंतु किसी खान में फंसे हुए एक व्यक्ति या किसी कुएं में गिरे हुए एक बालक की रक्षा करने के लिए ढेरों साधन जुटा लेता है कुछ विद्वान कहते हैं कि मनुष्य बंदर की संतान हो या न हो किंतु उसमें खालिस बंदर के द्वैध प्रकृति प्रायः होती है उसमें सहकारी बंदरों की भांति वृक्षों में उछलकूद करने की प्रवृत्ति तो होती ही है साथ ही ऐसे बंदरों की स्वाभाविक जिज्ञासा भी होती है जो अत्यंत संगठित गिरोह में रहते हैं और भांति भांति का मांस खाने में मजा लेते हैं मनुष्य की ऐसी परस्पर विरोधी इच्छा आकांक्षाओं से निपटना असंभव होता है फिर भी किसी प्रकार का संतुलित माध्यम वर्ग अपनाना अनिवार्य होता है यह बुद्धिमानी का रास्ता है विद्वानों ने मानव की मूलभूत आवश्यकताओं को पाँच स्तरों में रखा है महोदय जो एक के बाद एक आते हैं शारीरिक आवश्यकताएं यथा भोजन कपडा मकान और आराम जीवन की मौलिक आवश्यकताएं हैं दूसरे स्तर पर आती हैं सुरक्षा और भविष्य के प्रति निश्चिंतता इनके लिए मनुष्य भांति भांति की वस्तुओं का संग्रह करता है फिर है सामाजिक आवश्यकताएं जैसे अपने परिवार के भीतर और फिर बाहर के दूसरे लोगों से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए सामाजिक आर्थिक राजनैतिक और मनोरंजनात्मक संगठन बनाना चौथे स्तर पर है अहम् संबंधी आवश्यकताएं जैसे आत्मसम्मान आत्मविश्वास और आत्म तुष्टि आदि आत्म परितोष अर्थात उन्नति विकास और ख्याति प्राप्ति की क्षमताओं को साकार करना व्यक्ति की अंतिम और उच्चतम अपेक्षाएं हैं इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अपने आसपास उपलब्ध पर्यावरण का दोहन करता है जल थल वायु ही नहीं पेड़ पौधों पशु पक्षी जीव जंतुओं तक का उपयोग करता है सभी शक्तियों का यहां तक कि सफल व्यक्ति अपने से निर्बल व्यक्तियों तक का दोहन करता है जो शोषण की सीमा तक पहुंच जाता है इसके लिए भांति भांति की तकनीकें खोजी और अपनाई जाती हैं प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति भांति की आवश्यकता की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा रेखा भी खिसकाई है विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत कुछ आवश्यकताओं में गिनी जाने लगी है सचल वाहन दूरदर्शन धुलाई मशीन सफाई मशीन सिलाई मशीन स्टोव चूल्हे मिक्सी फ्रिज आदि आदि अब बहुत से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं की कोटि में आ गई हैं तकनीकी और औद्योगिको से यह सब संभव हुआ है किंतु एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता की कोटि में आ चुकी है विज्ञान की जन समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है उसे वह उन्नति कह कर संतोष करने लगता है और अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से भेद भाव पनपा है अमीरी गरीबी गरीबी के बीच की खाई चौड़ी हुई है जो व्यक्ति मानव मानव की समानता समाजवाद या साम्यवाद के गीत गाता है वह अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी शोषण के नए नए तरीके खोजता है यह शोषण बलात्कार की सीमा तक पहुंच गया है मनुष्य ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया फलस्वरूप भांति भांति का औद्योगीकरण हुआ और जल थल वायु सब प्रदूषण के शिकार हो गए जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ प्राकृतिक संपदा का भीषण हास हुआ व्यापक वन विनाश से भूमि बंजर और मरुस्थल बन गई एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी ऑक्सीजन सतरह हज़ार हेक्टेयर वन में तैयार होती है और वन बचे ही कितने हैं इस औद्योगिक प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म
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